कला में 'लोक'
I often find myself humming songs that I have no recollection of learning anywhere. It is only after a recent observation I found out that my mother hums the same song while knitting a sweater.
Dear reader,
I often find myself humming songs that I have no recollection of learning anywhere. It is only after a recent observation I found out that my mother hums the same song while knitting a sweater or cleaning the lentils. Such is the way of folk. It propagates through generations on its own, documenting itself in the subconscious of people.
I fondly remember my grandmother making small mountains using cow dung and mud and several other shapes that signified humans and animals living in harmony. I asked my grandmother what all those shapes were and what they meant and that was when she told me the story of Krishna, Indra and Govardhan Parvat that piqued my interest in folklore. Following that instance, I found myself sitting around amma's khaat very often only to request her for a new story.
In all those stories, our day to day activities found their way to play a major role and ended up offering a moral lesson for us to learn.
In the following section, we intend to tell you the stories of four different parts of India through their treasured folk culture.
Bengal, A Martyr’s Poem
Forlorn palaces cling defiantly to their once-glorious pasts, and the half-ruined mosques and mildew-covered tombstones of East India Company employees are a part of this poet’s identity. She covers herself generously with paddy fields and mango orchards. Red-oxide floors and sleepy green-shuttered windows are a part of her unique DNA, as distinct to her landscape as a fingerprint.
Bengal, the cultural capital of India, spews poetry like smoke, in vicious columns of abstracts, of unspilled blood, untold hurts, unsung love, and unrestrained joy. She feels like a spent sun spilling its tangerine in your eyes. You sit in a bamboo chair, folding yourself inside the white carapace of your shawl. The cotton is starched stiff, except for where you hold it in your hands, where the sweat persuades it into a softness.
Read the complete article ‘Bengal - A Martyr’s poem’ by Aishwarya Roy here
पधारो म्हारे देश
राजस्थान विविधताओं से हर एक कदम पर आँखें मिलाएँ चलता है। यह राज्य अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के बहुत अधीन है, यही कारण है कि इस राज्य के पास समृद्ध संस्कृति और कला है। यहाँ हर क्षेत्र की अपनी अलग पहचान है, यहाँ की भूमि के हर हिस्से की अपनी गाथा है, अपनी गंध है, संगीत और नृत्य की अपनी बोली है, वाद्य यंत्र और त्योहार भी हर क्षेत्र का भिन्न है, वेश-भूषा से लेकर खान पान, राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ की दीवारों से लेकर उदयपुर की झीलें, पूर्व दिशा में चंबल नदी से लेकर पश्चिम में थार मरुस्थल, जयपुर में गणगौर त्योहार से लेकर भरतपुर में ब्रिज होली, रावण हत्था (वाद्य यंत्र) के तारों की मधुर धुन से लेकर शहनाई-ढोल का संगीत - आपको दुनिया के नेपथ्य में ले जाता है।
गीतिका गग्गर द्वारा लिखित पूरा लेख ‘पधारो म्हारे देश’ यहाँ पढ़ें
Bastar Art- The Patrimony of Tribal Craftsmanship
Bastar, a district in the state of Chhattisgarh in Central India, has been a closed book to the contemporary world outside its fence- hidden beneath thick groves, housed in the lap of nature, off the map since overlapping centuries. It treads along its boundaries as an ostracised kid in the playground awaiting its turn on the swing of due recognition. But the outside world wasn't eager to hold hands with tribals, the upper-class elites rigid in their ignorant views on the traditional confinement of their education. The tribal regions have been neglected in their pursuit of cultural ideologies failing to please the modernising shores of contemporary walls. Their art has been debarred from their privileged lifestyles fixated on their opinion of the tribals as primeval people with a dearth of cultural development. Such disregard and insensitivity towards tribals left the world oblivious of their cultural bequest.
This misinformed art form, is in a continuous effort to pave its way to modern society, fueled through the support of global recognition, cultural enthusiasts and travellers, adamant on making the ingenuity of these communities known to those robbed of the knowledge of their artistic legacy.
Read the complete article ‘Bastar art - The patrimony of tribal craftmanship‘ by Resham Sharma here
Parai – The Music of the People
Be it a silent street of a small village or a noisy neighbourhood of a town, we would’ve seen children making musical instruments of empty paint cans and buckets to express their moods. We all would’ve done the same when we ourselves were children. Even as adults we are not beyond using the tables or plates for the same, tapping them to the beat of our favourite tunes. It is from this same impulse to express ourselves, to express our moods, our emotions, the Parai (பறை) was born.
Parai literally means ‘speak’ or ‘to make a sound’. From this etymological interpretation, we can understand that without the need to speak or to make a sound, Parai wouldn’t have come into existence.
Parai is a percussion instrument. The frame of the instrument is made up of three arcs of neem wood, secured by metal fasteners to form a circle of about 35cm. The bull/cow’s neck hide is stretched over this wooden frame and glued by natural resin. The percussion sticks used are two in number and are named after the quality of the sound they generate. The thin slender percussion stick is called “sunddu kucchi” (high pitch) and the other thick relatively shorter stick is called “adi kucchi” (base note). The sunddu kucchi is about 28cm long and the adi kucchi is about 18cm long. They are usually made of bamboo.
Read the complete article ‘Parai - The music by People’ by Chandrika and Sri here
कविताओं में ‘लोक’
मधुबनी चित्रकारी हो या वर्ली चित्रकारी, लोक-कला का एक अलहदा आकर्षण है। यूँ कभी ग़ौर तो नहीं किया लेकिन हो सकता है इसकी वजह इस कला-रूप का प्रकृति से जुड़ाव हो। लोक-कलाओं में प्रकृति का सिर्फ़ वर्णन मात्र नहीं है बल्कि प्राकृत तत्वों की बराबर भागीदारी भी है। इसी तरह जब किसी कविता में लोक-जीवन का चित्रण मिलता है तो एक खिंचाव महसूस होता है। इन कविताओं को पढ़ने के बाद सामान्य पाठक जो लोक जीवन से अछूता रहा हो वो उस लोक-जीवन और उसकी विविधताओं एवं अनुभवों के प्रति एक लालसा लेकर बैठा रह जाता है। ऐसी ही कुछ कविताएं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं जिनमें लोक-गायकों के अस्तिवत को चरितार्थ किया गया है, जिनमें माँ के सुंदर गीतों की याद हैं और लोक कला के प्रति आम जन की उदासीनता का उल्लेख है।
1. लोक गायक । प्रभात
सतही तौर पर उसे किसानों और श्रमिकों का कवि कह सकते हैं उनके जीवन से जो शब्द बनते हैं प्रायः उन्हीं को काम में लेता है वह कविता रचने के लिए धूल की तरह साधारण शब्द ओस की तरह चमकने लगते हैं उसकी कविता में आने पर बीजों की तरह अँकुआने लगते हैं गाए जाने पर उसका विशाल वाद्य घेरा मृत जानवर की खाल से बनता है जब वह गूंजता है पास ही जंगलों में खड़े भैंसे त्वचा पर स्पर्श का अनुभव करते हैं खेतों की मेड़ पर खड़े धवल फूलों वाले कांस कांसों की जड़ों से सटकर बैठे बैल इधर-उधर खड़े तमाम छोटे-बड़े पेड़ और झाड़ छोटे और बड़े कद के पहाड़ कान देते हैं उसकी आवाज पर वह आवाज जिसमें आँधियाँ हैं आँधियों की नहीं है वह आवाज जिसमें बारिशें हैं बारिशों की नहीं है पवन झकोरों और बारिश की बौछारों सी काल से टकराती आती यह आदिम आवाज पृथ्वी पर आदमी की है अर्द्धरात्रि में जब वह उठाता है कोई गीत रात के मायने बदल देता है अगम अँधेरों में गरजते समुद्रों के मायने बदल देता है अनादि सृष्टि में चमकते नक्षत्रों के मायने बदल देता है वह हमें बाहर के भेद देता है वह हमारे भीतर के भेद देता है चाहे तो शब्द से चाहे तो दृष्टि से चाहे तो हाथ के इंगित से पुकार लेता है सभा में सत्य को उतार देता है चाँदनी में बैठे ग्रामीण अलाव तापते हुए सुनते हैं उसे अलावों के चहुँओर दिपदिप चेहरों पर रह-रह खेलती है आदिम मुस्कान
2. काला कैनवास तिरछी लकीरें । तुषार धवल
वह जहाँ खड़ा है उस तक पहुँचने के सारे रास्ते गिर गए हैं और उसके चारों तरफ़ धुँध फैलती जा रही है जबकि उसे खोजने मिथकों में जा रहे हैं लोग वह एक द्वीप हो गया है कोई भी भाषा चल कर उस तक नहीं आ सकती अब वह अपने जैसा ही किसी को ढूँढ़ता है सड़क बाज़ार और इंटरनेट पर सिर्फ़ इतना कि वह काले को काला कहता है, ग्रे नहीं और काले को काला कह देने लायक़ कोई भाषा नहीं बची अब वह जो भी कहता है पहेली की तरह लिया जाता है जिसमें काले का अर्थ कुछ भी हो सकता है, काला नहीं अपने लोगों के बीच एक द्वीप हो जाना जीते जी लुप्त हो जाना है और ऐसे ही कितने लोग अकेले लुप्त हुए जा रहे हैं जबकि आँकड़े बताते हैं कि आबादी बढ़ रही है यह किसकी आबादी है? वह इन बेरहम फ़ासलों से हाथ उठा-उठा कर चिल्लाता है और कुछ कहता है पर व्यस्त लोग अपनी-अपनी जुगत में उसके बग़ल से निकल जाते हैं वह एक काले कैनवास पर तिरछी लकीरें खींचता है और बताता है यह मेरा समय है जिसकी तिरछी लकीरें कैनवास के बाहर मिलकर नई संरचना तैयार कर रही हैं चित्र कैनवास के बाहर शून्य में आकार लेते हैं उसका मन रोज़ एक खाई बनाता है जिसे वह रोज़ पार करता है जगत इसकी व्याख्या में उलझा रहता है।
3. माँ के गीत । मदन कश्यप
और क्या था माँ के पास बस एक साँवला चेहरा उम्मीदों को दुलार से पालने वाली बड़ी-बड़ी आँखें और ढेर सारे गीत व्यथा की चट्टान से फूट पड़ता था हँसी का झरना जब मेरा नन्हा सिर होता था उसकी गोद में महल नहीं था माँ के पास पर गीत थे कोठे-अटारियों के गीत थे सोने की थाली के छप्पन व्यंजनों के रेशमी परिधानों के गीतों में रूठ कर चला जाता था मैं नदी के पार फिर चाँदी की नाव लेकर मनाने आते थे पिता सोने का मुकुट होता था मेरे सिर पर चंदन की पाटी पर लिखता था मैं मोती से अक्षर कभी नहीं होते थे मेरे नंगे पाँव गीतों में गीतों में होती थी मेरी एक पृथ्वी पूरी-की-पूरी मेरा बिल्कुल अपना एक तारामंडल होता था बसे लाखों सितारों से जगमगा रही होती थी मेरी आकाशगंगा मेरा एक सागर होता था जिसकी असंख्य लहरें सुर में सुर मिला कर गा रही होती थीं मेरे सभी किलों के द्वार खुले होते थे मेरे सारे मंदिरों की घंटियाँ बज रही होती थीं गीतों में नहीं काँपते थे मेरे पाँव किसी को देख कर राक्षस को मार कर राजकुमारी से ब्याह कर लेता था मैं ले आता था ढेर सारा धन रंगून से जीवन में चाहे हर बार जीतता हो अत्याचारी कभी नहीं जीत पाता था गीतों में जो तीज-त्यौहार से जतसार तक के असंख्य गीत पसीने की गंध और पिसते आटे की ख़ुशबू से सने गीत माँ की आँखों में गीतों का महासमुद्र था जैसे दुख को भी गा लेती थी माँ न या अनुष्ठानों की चोबों पर शामियाने की तरह तना था उसका जीवन एक-एक अनुष्ठान के लिए कई-कई गीत और कई-कई अनुष्ठानों के लिए एक ही गीत गीतों के अद्भुत समुच्चय थे माँ के पास!
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During this pandemic, life has come to a halt for a majority of craftspeople who rely on daily production and sales. With restrictions subjected to public gathering, the craft fairs better known as melas are unlikely to take place, leaving the craftsmen without revenue and unable to feed their families.
As we end this edition of our folk special newsletter, we urge you all to reach out to local artisans whose skills are either hidden in the remote areas or are unable to reach out to a better-scaled market.
We are adding a link to a Google sheet where you can add the details of any local artisan you know who offers products and services. We will make the details public encouraging people to reach out to them and buy from them at their convenience.
Contributors : Gitika Gaggar, Resham Sharma, Sri, Chandrika Palaniswamy, Siva Wright, Aishwarya Roy, Shivam Tomar